गहरे पानी पैठ
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आश्वासन के झांसे,
व्यवस्था के पांसे,
छल हैं , फरेब हैं I
व्यवस्था-
बेनकाब बेकार I
व्यवस्था नहीं समझती,
दुःख शर्म आक्रोश I
बस,
दबाती है,
जनमानस को I
वह भी-
वहशीपन की हद तक I
अपने रहनुमाओं पर,
शर्मसार देश,
दे सकता है,
जाने वाले को
दीप दान,
आंशु बहाकर ,
सिसककर I
फिर वह,
कोई भी निर्भया हो I
“दीप नहीं
मसाल जलनी चाहिए
व्यवस्था परिवर्तन तक” I
बहुत हो चुका,
अब और इंतजार-
कदापि नहीं I
भोला नाथ पाल
इटावा
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