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सुधी मित्रों,
मेरी शेष रचनाएँ एक पत्राचार का हिस्सा हैं, जो ०२-०८-१९९८ से, संयोगवश ही कह लें, दैनिक जागरण के पूर्व संपादक श्री नरेंद्र मोहन के साथ प्रारम्भ हुआ l आप को बताते चलें कि बिना उनके दिशा निर्देश या यूँ कहे कि उनकी प्रतिभा, उनकी प्रभा, उनकी ऊर्जा के सानिध्य, ये सब संभव नहीं था l यह सब ऐसे ही था, जैसे एक चुम्बक लोहे के कणों को अपनी और खीच ले और अपनी प्रभा से उन्हें ऊर्जावान कर दे l
प्रस्तुत रचनायें, रचनायें नहीं पत्राचार की वो सुगंध हैं जिसके स्पर्श से मेरी हर सुबह हर शाम सुभाषित हुई है l मैं अपने को विश्व का एकमात्र एकलव्य समझता हूँ l जिसके गुरु ने उससे गुरूदक्षिणा में कुछ नहीं चाहा बस दिया ही दिया l इस पावन यज्ञ में सहयोग के लायक न में था, न हूँ l हाँ उनके द्वारा सृजित उन्मुक्त वातावरण में मैंने अपना जीवन संवारा है l इस कृपणता को आज भी में अपना सौभाग्य समझता हूँ l
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