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छडिकाएँ

गहरे पानी पैठ
गहरे पानी पैठ
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मुट्ठी की रेत सा,
प्रयासों को चिढ़ाता,
अस्तांचल के सूरज सा,
हताश, निराश, उदास,
यह जीवन,
पूछ्ता है मुझसे,
मुझे पाकर तुम कितने संतुष्ट ?

ये दिन ये रातें,
ये अरमानो की बारातें,
ये सूरज ये चाँद,
अनंत तक फैला ये आसमाँ,
विस्मित हर अभिव्यक्ति,
पूछती है खुद से,
मैं किसका परिणाम,
किसका आशीष,
किसका प्रणाम l

दिल ने पूछा,
कहो कैसे कटी जिंदगी ?
“नशे में रहे,
कभी सोचा ही नहीं
जिए कैसे”

जब….
सारे रूप,
तुम्हारी ही धूप,
तो किससे अनुराग,
किसका त्याग l

जब सारे सम्बन्ध,
तुम्हारे ही प्रबंध,
तो किससे अनुबंध,
किसपर प्रतिबन्ध l

कुंठित विवेक,
जब हो जाता,
तिमिर को नतमस्तक,
बात प्रकाश की,
उत्साह उल्लास की,
तब कितनी सार्थक l

कितना दीन,
असहाय है इंसान,
फरेब करता है,
प्रभुता पाने को l

सूरज ने हड़काया जुगनू को,
में आफ़ताब हूँ,
जुगनू ने पूछा,
यह तो बता,
तुझे रोशनी किसने दी ?

नंगे है सब हम्र में,
सब ही जानें,
फिर भी, सरेआम…
नंगाई वर्जित है l

झुठार डाले,
सारे तट पनघट,
अब झाँकता है,
सूखे रीते घट l
कब तक,
आखिर कब तक,
चलेगी यह अंतहीन भटकन ?

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