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कर्म सुगन्धि

गहरे पानी पैठ
गहरे पानी पैठ
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क्यों ?
कोई नहीं जानता
बस,
एक उत्साह था
सबके मन में….
जो भी आएगा
निष्ठा से, लगन से, आदर से
स्वयं ही स्वंय की संतुष्टि के लिए
निपटाऊंगा सारे काम
आज ही l
सदियों के, बरसों के, कल के, आज के
देखे, अनदेखे
अधकचरे, अधूरे,
पटरी पर लाऊंगा
सारे काम
आज ही l
प्रहर बीता
स्वंय, स्वंय पर
चमत्कृत मैं ,
देखता हूँ स्वंय को
न श्रम की अनुभूति,
न थकान
हर्ष ही हर्ष,
हर्ष की यह कैसी उड़ान !
अंदर ही अंदर
अंतस में
जागा है शायद कर्तव्यबोध |
अदृस्य व्याप्ति –
हो उठी है क्रियाशील,
एक बोध है सर्वत्र
कर्म सुख का,
अनुभूति का,
अभिभूति का l
कस्तूरी मृग सा
स्वंय स्वंय पर आत्ममुग्ध
हर तिनके को
सूंघता मैं
खोजता हूँ कर्म सुगन्धि
जो बसती है
तुममे, मुझमे, सबमें l
एकसाथ |

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