गहरे पानी पैठ
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ऊँचे आसन से-
झरते
कोरे व्याख्यान,
व्यवस्थाओं में पलते
कुत्सित अरमान,
सूखे पत्तों से खड़कते
रूखे स्वर,
सुचिता हरते
बढ़ाते अंतस का ज्वर |
भ्रमित दिन
विक्षिप्त रातें,
सतरंगे उजालों की-
अँधेरी बारातें |
उद्विग्न करतीं
अंतस की
सुचिता हरतीं
* * * * * *
जब……
संतुष्ट हों,
अपने प्रश्न
अपने उत्तरों से |
प्रस्फुटित हो
अपनी गंगा
अपने प्रस्तरों से,
तब……
अंतः स्नान,
अंतः यात्रा सा सुख
अन्य कहाँ,
अपना पुरुषार्थ
अपना मोक्ष
अन्यत्र कहां !
मेरे प्रभु !
सारे प्रयास मेरे,
सारे पुरुषार्थ मेरे,
हैं मात्र….
तुममे विराम पाने को,
तुममे विश्राम पाने को,
तुम इतना करो
द्वैत हरो |
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