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हे रत्नाकर मन के घट में
अपना रूप समंदर भर दो,
मन में तृष्णा कभी न व्यापे
मेरे प्रभु कुछ ऐसा कर दो |
हम खुशी हैं ,किन्तु कितने
याचना थकती नहीं,
दम्भ की प्रतिमूर्ति हैं पर
कामना मरती नहीं,
खोजता हूँ तृप्ति पग पग
आर्त हो लाचार हो,
तृषित मन का ताप ढोता
निरा निरा निरास हो |
मरुथल में बहती भ्रम सरिता
कृपा करो अमृत से भर दो |
हे रत्नाकर ……….
मैनें तेरे प्रभालोक को
बहुत दूर से छुप छुप देखा,
तेरी आभा की किरणों में
खोजी अपनी मस्तक रेखा,
हिचका ठिठका रुका बढ़ा पर
जोड़ न पाया तुझसे नाता,
तेरा द्वार प्रभा से मंडित
मेरा मन रह रह सकुचाता |
हे करुणाकर ह्रदय लगाकर
लघुता का अभिनन्दन कर दो,
हे रत्नाकर ………
क्या कहेगा विश्व सारा
तृषित गर रह गया मैं
हृदय के समवेग को गर,
रेत बनकर सह गया मैं
कुछ करो संताप हर लो,
तृषित मन का ताप हर लो |
खो गई मन की सरलता
दम्भ का परिताप हर लो
हे जलधर ! तुम इतना बरसो
सराबोर सब जग को करदो |
हे रत्नाकर………
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