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उलझे तार…….

गहरे पानी पैठ
गहरे पानी पैठ
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मरुथल दोपहरी सा-
तपता जीवन,
प्राण हरती प्यास,
भ्रम सरिता प्रवाह,
तृषित कंठ मृग को,
कितना भटकायेगा…………..
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मन की लीला ही सही,
स्वप्न सुंदरी सा यथार्थ,
स्वयं भुक्त, स्वयं भोगी सा,
विविध रूप धर,
होकर उदार,
कितना बहलाएगा……………
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जानता है सागर,
पूनम की रात को,
पगलाता है चाँद,
उठाके सारे ज्वार,
कितना बहकेगा,
इतना बहकायेगा…………….
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प्रियतम की पीठ पर,
‘परित्यक्त-आ’ की इबारत,
देती है सुख,
कितना प्रेमी हृदय को,
जाने वाला क्या है,
यह कौन बतलायेगा……..
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पाना क्या शेष है,
कोई क्या देगा,
जीवन तो जीना है,
उलझ तुम्हारे साथ,
वर्ना अकेलापन,
बहुत सताएगा……………..
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