गहरे पानी पैठ
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लगता है जैसे,
सब कुछ है रीत गया,
बासंती स्वांशों का,
‘बीता युग’ ढूंढ़ता हूँ….
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गुंजित हो जिससे,
चिंतन का हर सितार,
आशा तरंगों का,
प्राण तार ढूंढ़ता हूँ….
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एक एक किरण को,
सींक सींक ढूंढकर,
बाँधूं किस जतन से,
हर उपाय ढूंढता हूँ…..
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निष्चल सी स्वांशों को,
तुमने दिए नाम जो,
नामों के झुरमुट मे,
व्याप्त नाम ढूंढता हूँ….
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सपनो को देख देख,
जाग उठा बार बार,
जानता हूँ सपने हैं ,
पर यथार्थ ढूंढता हूँ …..
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कहते सब चलना है,
और आगे बढ़ना है,
किन्तु भ्रम से द्वार बंद,
खुले द्वार ढूंढता हूँ…….
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