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स्वार्थ की मूर्छा

गहरे पानी पैठ
गहरे पानी पैठ
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है कहाँ उन्मुक्त अब आकाश इतना,
पर लगा कर उड़ सकें स्वछंद होकर ,
गढ़ लिए हर स्वार्थ ने सिद्धांत अपने,
छुप गया सच औ’ पहरुए बन गए हम |
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स्वार्थ ने कुछ यूँ डसा हर सोच को
आत्मगौरव, देश कुछ भी ना रहा
है अगर कुछ शेष तो है स्वार्थ वह
स्वार्थ जिसने डस लिया हर सोच को |
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हम गिरे गिरते गए कुछ इस तरह
जेहेन में ही मर गए शरमोमलाल ,
सोच ने शायद वहां की खुदकुशी
स्वार्थ का जिस जगह था जश्नोजलाल i
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सोच का निकला जनाज़ा जिस घडी
लोग सोचे राह भर कुछ इस तरह ,
अच्छा हुआ, अंकुश मिटा, अब खौफ क्या
बाँट लेंगे हम वतन अपनी तरह i
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हाय रे चिंतन तुम्हारी दुर्दशा यह
क्यों हुए दिग्भ्रमित तुम कुछ तोह कहो ,
स्वार्थ की ये मूर्छा कब तक चलेगी
उठो जागो बोध में कुछ तो बहो |

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