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अक्सर दर्शन जैसे गंभीर विषय पर भी हमारी वार्ताएं सरस रहती हैं | ईश्वर की गहन अनुभूति की चर्चा के बीच अक्सर मेरे मुहं से निकल जाता है “यार चाय बिना यह सब नहीं चलेगा, बिना चाय मुझे सुनने और कहने में आनंद नहीं आता” | सो बिचारे साथी साथ के मारे चल देते उठकर चाय बनवाने, बीवी कहती ऐसे आदमी को बुलाते ही क्यों हो जो चाय बिना नहीं रह सकता, मैं इतना ही सुन पाता “धीरे बोलो और भी लोग हैं, पूरा सत्संग है |” खैर चाय आती पहली चुस्की लेकर चर्चा आगे बढ़ती | प्रश्न गंभीर होता, अंतस की आँख या अंतर्दृष्टि खुल जाने पर साधना में नीरसता क्यों आ जाती है ? कोई कह उठता नीरसता नहीं आती, कोई कहता नीरसता आ जाती है | प्रश्न ही झमेले में पड़ जाता | लो अब सुलझाओ | फिलहाल आपस में सहमति बनती कि मान लो कभी आती है, कभी नहीं आती | किसी को आती है, किसी को नहीं आती है | सो तय होता कि तय करना है कि आती है तो क्यों और नहीं आती तो क्यों | दोनों बातें बताओ |
बीच में पाण्डेय जी बोलते चाय ठंडी हो रही है | मैं कहता चाय में उतना स्वाद कहाँ जितना आनंद बातों में आ रहा है | फिर बनवाई क्यों थी जब पीनी नहीं थी ? कौन कहता है पीनी नहीं थी, पी तो रहा हूँ , और भी पीऊंगा कप उठाना मत | मैंने ठंडी चाय कि एक चुस्की और ली और बोला यार पाण्डेय जी तुम कैसे आदमी हो सत्संग में चाय डाल दी, मजा किरकिरा कर दिया | “तो क्या मजा किरकिरा करने के लिए ही चाय बना कर लाया था” | “अरे सही तो बोलो बना कर नहीं बनवाकर लाये थे और डाँट भी खाए थे |” और सब लोग एक साथ हंस देते हैं | “हां, तो पाल साहब आगे बढ़ते है, मान लो साधना में नीरसता आती है तो क्यों आती है ?” ” तुम साधना करते हो जो नीरसता आएगी ? अरे भाई नीरसता, सरसता पाण्डेय जी को आ सकती है, जा सकती है, जो चाय पिलाते हैं | तुम्हे न आ सकती है ना जा सकती है और मैं पूरा कप एक ही सांस में उड़ेलकर बोला चलो अब कल सत्संग होगा दुबे जी के यहाँ |”
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