गहरे पानी पैठ
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हमारा अतीत,
भारत का व्यतीत,
कुछ बीते कल,
बोझिल पल,
पलट कर देखें,
सोचें,
क्यों होते हैं परिवर्तन ?
“अति सर्वत्र वर्ज्यते”,
“निरपेक्षता की आड़ में”,
संस्कृति पर,
जब जब वार हुआ,
जन आकांक्षाएं…
आहत हुईं,
समरसता का-
उपसंघार हुआ,
जन गण मन का-
सागर अकुलाया,
सुनामी आई,
`अति `का उपहास हुआ |
अतीत रसातल को गया,
किन्तु वर्तमान ?
कल के बाद,
एक आज बीता,
चाँद के चेहरे पर,
सितारों की बरसात हुई i
चाँद सोचता है,
किसको निखारें ?
किसको सवारें
प्रभुता और पद,
जबतक नहीं नापते,
एक ही पैमाने से-
सबके कद,
तब तक –
व्यवस्था-
समस्या ही नहीं,
विवशता भी रहेगी i
बिना समरसता,
बिना समता,
कैसे चलेगी
व्यवस्था ?
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