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अंजुली भर अमृत …..

गहरे पानी पैठ
गहरे पानी पैठ
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बहुत दूर मैं चला
क्षितिज को
पाने की आशा में,
दो पल बैठें
पीठ टिका कर
पनपी अभिलाषा में i
थक् कर बदन
निढाल हुआ जब,
आँख लगी
तो तू आया,
सिर को
गोदी की तकिया दे,
कैसे हो
सिर सहलाया i
बहुत देर बतियाया
मन के
सभी उल्हाने
करके शांत
बोला मैं चलता हूँ
तुम भी-
जल्दी आओ तजके श्रांत i
वहां न कोई
समय की सीमा
न तन के
बंधन ऐसे,
आकर्षण का
प्रेत न छलता
निस्पृह सब रहते
जैसे
प्रेम प्यार की
अमर कथा में,
जो हारे
वो ही जीते,
करपात्री जी
पुलक प्राण में
अंजुली भर
अमृत पीते |

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