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शर्मिंदा हुए नेत्र ……………

गहरे पानी पैठ
गहरे पानी पैठ
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हे नेत्र !
तुम न होते-
तो….
कैसे देख पाता
ये जमाना-
कि……
कभी कभी
कैसे छला जाता है-
समय,
विवेक शून्य
विरोध के हाथों I
***********************
समय के विरुद्ध
एकजुट होतीं-
दुरभि सन्धियाँ,
झेल रही हैं
लौ बुझने से-
पूर्व की
छटपटाहट I
************************
पतन के प्रेत
कर रहे हैं
निर्विकार नैतिकता को
निर्वस्त्र
ठगी अस्मिता
देख रही है
स्वयं को-
अनावृत होते I
**********************
रात……..
कितनी भी –
काली हो
घनी हो, अंधियारी हो
प्रभा की हर किरण
करती है,
निशा के-
कुत्सित हृदय को-
विदीर्ण I
उदय होता है
केसरिया प्रभात,
हर बेला….
बन जाती है
अमृत बेला,
समय का-
होता है श्रृंगार,
साक्षी दिशाएं
करती हैं-
अमृतपान,
आलोक में स्नान I
************************
अनंत विस्तार का
नियमन करती-
सास्वत चेतना
के आगे-
मानसिक प्रदूषण के
ये पुतले,
जितना उछलेंगे
अशक्त होंगे I
*******************

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