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जो, न सुने, न समझे, न विश्वाश करे ,कोई उसका भला करे भी तो कैसे करे ?,जो तैयार ही न हो , केवल दूसरों को दोष दे और रोये ,आरोप लगाए , पास पड़ोस को बुलाये .सब समझाये विश्वाश करना सीखो तो कहे विश्वाश की बात ही नहीं, आँखों देखेंगे और समस्या यह कि जिन आँखों से देखना है उन्हें बन्द रखे .अविश्वाश से उपजता भय ,समरसता का क्षय करता .न शांति से रहता ,न रहनें देता .अविश्वाश की बिष वेल किसी भी समाज का हित नहीं करती उलटे हित साधनों को भी संसय की निगाह से देखती . हम ह्रदय भी निकाल कर रख दें तो अविश्वाश सोचता है ,जरूर इसमें कोई चाल होगी ! आँखों देखना चाहते हो और सोचते हो जरूर कोई चाल होगी ! क्या कहें , कुछ कहते नहीं बनता ?
बात जब ब्यवस्था के चयन की चल रही हो और अविश्वाश हो कि समय की गंभीरता को समझनें को तैयार ही न हो तो इसे दुर्भाग्य नहीं और क्या कहेंगे ! ऊपर से अविश्वाश के ठेकेदार, दूध के उजले , गुमराह करनें से गुरेज नहीं करते ..ईमानदारी से आँखें खुली रखना कोई पाप नहीं .विश्वाश करो और विश्वाश से ज्यादा न मिले तो दोष देनें का कारण बनता है मुझे विश्वाश है ऐसा नहीं होगा .
मैं जब पुलिस में ट्रेनिंग कर रहा था तो पी टी आई नें टोका , ” बी यन पाल पैर मिला कर चलो ” किसी नें जबाब दिया, ” सर ! बी यन पाल छुट्टी पर है ” , तो क्या हुआ ” उससे कहो जहाँ भी हो वहां पैर मिला कर चले “. हमें समाज में मिलजुल कर रहना सीखना होगा , एक दूसरे पर विश्वाश करना होगा . हम बहुत से मुल्कों से अच्छे हैं लेकिन इतना ही सब कुछ नहीं .अविश्वाश से उबरना होगा .राष्ट्र निर्माण में विश्वाश प्रगति की कुंजी है ………. .
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